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Sunday, June 13, 2021

कोरोना काल में मेहदवियों के कर्तव्य - शाफिया फरहिन

पिछले साल से म देख रहे हैं कि कोविड-19 नाम की महामारी से सारी दुनिया बेहाल हुए जा रही है। हर कोई अपने-अपने हिसाब से बस अनुमान ही लगा रहा है कि आखिर इस महामारी का आरंभ कहाँ से हुआ? यह महामारी आयी क्यों? इसका इलाज क्या है? इस से कैसे बचा जा सकता है? कोई इसे जैविक हथियार बता रहा है तो कोई हमारे पापों की सज़ा। यह सवाल भी उठाया गया है कि कहीं इसका संबंध इल्लूमिनाटी से तो नहीं? या फिर कश्मीर में जो लोगों को क़ैद किया उनकी बद्दुआ है या फिर बर्मा और सिरिया में लोगों को जलाया गया उनकी आह है। या पलेस्तीन में लोगों को विशाल गैस से मारा गया उनकी आह है? क्योंकि आज इनसान साँस ही तो नहीं ले पा रहा है। इस बात का ज़िक्र करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि दुनिया के शक्तिशाली देशों ने इन लोगों की मदद करने के बजाए बस तमाशा देख रहे थे। दुनिया का नक़्शा उठा कर देखें तो इस महामारी की चपेट में वही देश हैं जहाँ ज़ुल्म किया गया। और वह देश भी जिन्होंने ज़ालिम का साथ दिया और इस अहिंसा को अनदेखा कर दिया। क्योंकि जहाँ यह हिंसा हुई वे देश इन महामारी की चपेट से बचे हुए हैं।

अगर इस्लाम के इतिहास को देखा जाए तो हमें पता चलता है कि नबियों के ज़माने से ही ऐसी महामारियाँ देखी गई हैं। जब खौम बदकारी, बेहयाई को अपना लेती है तब खुदा कि ओर से ऐसी महामारी भेजी जाती है। अगर मूसा (अ.स) और फिरऔन के क़िस्से को याद करें तो पता चलता है कि जब फिरऔन ने बनी इसराईल पर ज़ुल्म किया, और जब वह ज़ुल्म अधिक हो गया तब खुदा ने आसमानी आपदा के माध्यम से फिरऔन को सबक सिखाया। ऐसी ही आसमानी आफत हज़रत हूद (अ.स), हज़रत लूथ (अ.स) और हज़रत स्वालेह (अ.स) की नबुव्वत के दौर में भी हुआ। इस दौर में सिर्फ गुनहगार या नाफरमान लोग ही नहीं बल्कि नेक लोग भी इस महामारी की चपेट से बच नहीं पाए थे, और आज यही हो रहा है।

   अश्रफ-उल-मक़लुक़ात (बुद्धिजीवि) ने जब औरत की बेज़्ज़ती की तो अल्लाह ने मर्दों को भी मुंह छिपाने पर मजबूर कर दिया। ज़िना को आम और निकाह को महंगा कर दिया तो अल्लाह ने सादगी से निकाह करने पर नहीं मजबूर कर दिया? और जब हमने अपने बुज़ुर्गों की इज़्ज़त करना छोड दिया तो क्या यह नेमत हमसे नहीं छीन ली गई?

इन सब बातों को एक जगह रख, हमें अब यह सोचना चाहिए कि इस महामारी से कैसे निपटा जा सकता है? अगर हम ऊपर बताई बातों पर गौर करें तो इस मर्ज़ का इलाज यही निकलता है कि हमें अब वापस अपने-अपने ईमान अक़ीदे(मानयता) और ईमान की ओर लौटना होगा। हमें बस नाम से ही नहीं बल्कि हमारे आमाल से मोमिन मेहदवी बनना होगा। इस तरह की महामारी खुदा की ओर से एक सबक का ही काम करती है। यह बताती है कि इस तमाम दुनिया का कोई मालिक है और वह सिर्फ और सिर्फ अल्लाह है। जिसकी मर्ज़ी के बिना एक पत्ता तक नहीं हिल सकता।

अब अगर हम मेहदवियत की बात करें, तो इस्लाम के पांच फर्ज़ों (कर्तव्य) के अलावा भी मेहदवियों के लिए कुछ फर्ज़ हैं, जिसे फरायज़-ए-विलायत और तालिमात-ए-इहसान कहा जाता है। और इन फराएज़ की बुनियाद हुज़ूर-ए-अकरम (स.अ.स) ने हमें बताई हैं। (सहीह मुस्लिम की रिवायत है) “खुदा की इबादत (उपासना) इस तरह करो जैसे कि तुम उसे देख रहे हो, क्योंकि अगर तुम उसे नहीं देख रहे हो तब भी वह तुम्हें देख रहा है।“ इन फराएज़-ए-विलायत के एहकमात (उपदेश) इस तरह हैं ‌‌_

1.      तर्क-ए-दुनिया

2.     सोहबत-ए-सदिक़ीन

3.     उज़्लत-ए-क़ल्क़

4.     ज़िक्र-ए-कसीर

5.     तलब-ए-दीदार-ए-खुदा

6.     तवक्कल

7.     हिजरत

8.     उश्र

1. तर्क-ए-दुनिया : अर्थात् दुनिया के मामलों दूर होना। आम तौर पर मेहदवी निवृत्ति के बाद ही तर्क-ए-दुनिया होते हैं। इसकी वजह यह है कि तर्क-ए-दुनिया होने के बाद दुनिया के लालच को हमेशा-हमेशा के लिए त्याग कर आगे की ज़िंदगी सिर्फ अल्लाह की इबादत करते हुए गुज़ारनी है। इस महामारी ने इनसान को यह अवश्य याद दिला दिया है कि इनसान को आखिर अल्लाह के पास ही लौट कर जाना है। दुनियावी ज़िंदगी को छोड़ना मुमकिन नहीं तो कम से कम इन मामलों को कम तो किया ही जा सकता है। ऐसा नहीं कि तौबा की और वापस गुनाहों में मुब्तिला हो जाएं। मेरे वालिद अकसर एक शेर कहा करते हैं... “करके बाद-ए-दुनिया हुआ फक़ीर, कमबख़्त पाक होके पलीदों में मिल गया।“ यानी गुनाहों  से साफ होने के बाद भी दुनियावी मामलों में लौटना इनसान को और भी ज़लील बना देता है।

2.     सोहबत-ए-सदिक़ीन : अर्थात् सच्चे लोगों के साथ रहना और उनसे दोस्ती रखना। यहाँ सच्चे दोस्त से तात्पर्य वह व्यक्ति जो तुम्हें अल्लाह की याद दिलाए। इस कठिन समय में दुनिया में जो उथल-पुथल मची हुई है उसमें अल्लाह के अलावा कोई और मदद कर सकता है तो वह है सच्चा दोस्त। क्योंकि हर शख़्स इतना परेशान है कि वह दूसरों को बचाने से ज़्यादा खुद को बचाने की फिक्र है। और दुनिया में इतनी बेईमानी फैल गई है कि हर कोई चंद पैसों के लिए कुछ भी कर सकता है। वही अगर दोस्त ईमानदार हो तो वह खुदा के खौफ से ऐसा कुछ नहीं करेगा और आपको भी ऐसा करने से रोकेगा।

3.      उज़्लत-ए-क़ल्क़ : उज़्लत यानी किनारा और क़ल्क़ यानी मक़लूक़ (लोग)। लोगों से अलग होकर अल्लाह की इबादत करना उज़्लत-ए-क़ल्क़ कहलाता है। और मौजूदा स्थिति को ध्यान में रखें तो जो भी इस रोग से ग्रसित है उसका इलाज उसे अकेला रख कर किया जा रहा है। जो इनसान रोगग्रस्त है और एकांत में है और कोई उसके पास नहीं जा सकता तो उसे अल्लाह के सिवा और कौन याद आ सकता है? और लोगों को इसलिए भी अकेला रखा जा रहा है कि वह अन्य लोगों को संक्रमित न कर दे। क्या यह अल्लाह की ओर से कोई पैगाम तो नहीं? बेशक है। क्योंकि हमें उसी के पास लौटकर जाना है तो ज़िंदगी भी उसी की याद में गुज़ारनी चाहिए।

4.      ज़िक्र-ए-कसीर : यानी अल्लाह को याद करना कसीर का अर्थ होता है अनगिनत। यानी ज़िक्र (नाम स्मरण) करते समय न गिनना। जब अल्लाह ने हमें देने में कोई गिनती नहीं रखी तो उसको हमें अनगिनत बार ही याद भी करना चाहिए। कोरोना के इस कठिन समय में भला कौन है जो खुदा को याद नहीं करता होगा? जब सारी मेडिकल साइंस जवाब दे चुकी है। जो लोग बाज़ आए वह ठीक, लेकिन जो बाज़ नहीं आए उनका क्या? वैसे भी मेहदवियत में खुदा का ज़िक्र करना फर्ज़ है। हमारे मुर्शिद ने तर्बियत के मौक़े पर हमें सिखाया था कि ज़िक्र ऐसे करें कि जब सांस अदर लें तो दिल में कहें “इलल्ला तू है” और जब सांस बाहर निकले तो कहें “ला इलाहू नहीं”। ज़िक्र हमें हर वक़्त करते रहना चाहिए। और ऐसे करना चाहिये कि पास बैठे व्यक्ति को पता भी न लगे। अल्लाह के ज़िक्र से बेहतर और कौन सी दवा हो सकती है भला।

5.      तलब-ए-दीदार-ए-खुदा : खुदा को देखने की तलब (तीव्र इच्छा) भला किस मोमिन मुसलमान को नहीं होगी? यानी खुद को इबादत में इतना मसरूफ कर लेना कि दिल में अल्लाह में देखने की तडप कम न हो। क्योंकि हर मोमिन को खुदा का दीदार ज़रूर होगा।

6.      तवक्कल : अर्थात् सिर्फ और सिर्फ अल्लाह पर पूर्णतः निर्भर होना। कोरोना काल में जहाँ कोई इनसान किसी का साथ चाह कर भी नहीं दे पा रहा है, ऐसे वक़्त में अल्लाह पर निर्भर होने के सिवा कोई और रास्ता भी नहीं है। और जो अल्लाह पर भरोसा कर ले फिर उस इंसान का बाल भी बांका नहीं हो सकता। बस इनसान का ईमान और अक़ीदा (विश्वास) सच्चा होना चाहिए। यह बात हम जानते हुए भी भूल गए थे लेकिन इस महामारी ने यह अवश्य याद दिला दिया कि जब तमाम दुनियावी ताक़त साथ छोड से तब भी हमारा खुदा हमारा साथ नहीं छोडता। हम कितने भी बडे गुनाहगार क्यों न हों वह हमें ज़रूर माफ करेगा।

 7.      हिजरत : अग्न्रेज़ी में इसे माइग्रेशन कहते हैं जिसका मतलब सफर यानी यात्रा से है। मौजूदा स्थान या शहर में अगर इबादत में बाधा हो रही है तो उस जगह से दूर जाकर इबादत करना हिजरत कहलाता है। इस कोरोना काल में यही हमारी आज़माइश (परीक्षा) है कि हम अपने घर के अलावा और कहीं सुरक्षित नहीं। तो इस बात का ध्यान तो अवश्य रख सकते हैं कि जहाँ भी रहें, जैसे भी रहें अल्लाह को याद करते रहें।

8.      उश्र : दशमांश यानी दसवां हिस्सा। मेहदवियों को ज़कात के अलावा उश्र भी देना फर्ज़ है। यानी अपनी हलाल कमाई का दसवां हिस्सा गरीबों को देना। और इस उश्र को अदा करने का मौक़ा इस कोरोन काल ने दिया है। मेहदवी यदि मेहदवियत पर उतर आएं और अपना आचरण एक सच्चे मेहदवी की तरह रखें तो अवश्य इस महामारी पर काबू किया जा सकता है। इसके अलावा पांच वक़्त नमाज़ के लिए वुज़ू बनाना और पाकी-सफाई का खयाल रखना तो हमारे नबी (स.अ.स) ने हमें सिखाया ही है।

यह बात गौर तलब है कि यह माना गया है जो तकलीफ तुम्हें खुदा के क़रीब ले आए वह तकलीफ नहीं बल्कि आज़माइश है और जो तकलीफ तुम्हें खुदा से दूर ले जाए वह आज़माइश नहीं बल्कि खुदा की तरफ से तुम्हें दी गई सज़ा है। यहाँ यह बात सोचने वाली है कि हम किसी भी तकलीफ को खुदा से रुजु होकर उसे आज़माइश बना सकते हैं। यानी तत्कालीन परिस्थिति में हम एक दूसरे की मदद कर, सवाब (पुण्य) ज़रूर कमा सकते हैं। हमारे नबी (स.अ.स) ने हमें यही तो सिखाया है। उन्होंने हमें सिखाया है कि “पडोसियों का भी उतना ही खयाल रखो जितना कि अपना।“, खैरात (दान) दिया करो चाहे वह एक मुस्कुराहट ही क्यों न हो।“ हमारे नबी ने हमें मिल बांट कर खाना सिखाया, सिर्फ उपदेश नहीं दिया बल्कि उस पर खुद अमल कर के दिखाया। क्या उनके उम्मती (अनुयायी) होने के नाते हमारी नबी की सुन्नत पर चलना नहीं चाहिए?

कोरोना काल में जिनकी आर्थिक स्थिति बेहतर है वे अपने पैसे के माध्यम से लोगों की मदद कर सकते हैं, जिनके पास ज़रूरत से ज़्यादा है वे बाकी अपने पडोसियों को दे सकते हैं, क्योंकि पडोस का हक़ पहले होता है। इस्लाम हमें यही सिखाता है कि दूसरों की मदद भी बिना किसी अपेक्षा के और बिना किसी दिखावे से करो। खास कर आज कल देखा गया है कि किसी गरीब की मदद करते वक़्त फोटो लेकर सोशल मीडिया में डाल कर किसी की गरीबी का मज़ाक बना कर उसे शर्मिंदा किया जा रहा है। जब कि कहा गया है- “एहसान किसी पे इस तरह करो जैसे अल्लाह ने तुम पर किया है।“ यानी बिना कुछ तुमसे वापस पाने की उमीद से। मानव स्वभाव है कि वह अपनी किसी मदद के बदले आगे वाले से कुछ न कुछ वापस पाने या कम से हम उसका एहसान मानने की उम्मीद रखता है, लेकिन कम से कम इस महामारी के समय में हम इस लालच को त्याग दें तो कितना अच्छा होगा? जो मदद कर सकते हैं वे करें और जो नहीं कर सकते वे शर्मिंदा न हों बल्कि अपने-अपने घरों से बेवजह बाहर न निकल कर लोगों की सेवा कर सकते हैं। इस्लाम हमें यही तो सिखाता है कि जिस देश में रहें उस देश की और वहां के कानून की हिफाज़त करो। इस समय में सरकार ने जो कानून बनाए हैं वह लोगों की भलाई के लिए ही तो हैं। इस पर अमल करना हर मोमिन मेहदवी का फर्ज़ है। और खुद को हलाक करना भी तो गुनाह ही है।

अगर सीधे-सीधे शब्दों में कहा जाए तो जिस मेहदवियत की बात हम करते हैं जब तक उसे हमारे आचरण में नहीं ले आते तब तक इस महामारी से बचना मुश्किल है। हमें लौट कर हमारे ख़ालिक़ (सृजन कर्ता) के पास ही जाना है। हमारी दुनियावी शिक्षा हमें आखिरत में बचा नहीं सकती लेकिन दीनी तालीम ज़रूर बचा सकती है। अगर हम उसको न सिर्फ हासिल करें बल्कि उसका पालन भी करें। और जो तालीम हासिल करें उसे ज़िम्मेदारी समझ कर दूसरों तक पहुंचाएं। और जिसकी इस महामारी से बचने के लिए इतना याद रखिए कि – “न घबरा कुफ्र की ज़ुल्मत से तू ए दिल, वही पैदा करेगा दिन भी जिसने की है शब पैदा।“ खुदा हमें अपने ईमान पर खायम रखने की तौफीक़ अता फरमाए, आमीन।

निबंध और लेखिका के बारे में: मोहतरमा शाफिया फरहिन , Y. शफिउल्लाह खान साहबकी पुत्री और हज़रत पीर-ओ-मुर्शिद सैय्यद मुबारक इशाक़ी की मुरीद, अह्ले मंड्या, मेहदविया सादत नगर, गुथल रोड, मंड्या, कर्नाटक, भारत की निवासी हैं। उन्होंने मैसूर विश्वविद्यानिलय से बी., कर्नटक राज्य मुक्त विश्वविद्यालय से एम., कर्नाटक हिंदी प्रचार सभा से बी.एड्, किया है। वर्तमान में वह, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यानिलय, मानसगंगोत्री, मैसूरु से पीएच.डी (Ph.D) और अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा (Pg.dip in translation) कर रही हैं।  साथ ही वे इस्लामिक ज्ञान भी प्राप्त करने के साथ-साथ, उसे सभी मेहदवी भाई-बहनों के साथ साझा करना भी चाहती हैं। और वे सिर्फ समुदाय ही नहीं बल्कि अपने देश के लिए एक अच्छी नागरिक बनना चाहती हैं। 

वे एक शोधार्थी के रूप में हिंदी साहित्य क्षेत्र में भी उत्कृष्टता प्राप्त करना चाहती हैं। हम उनके भविष्य के सभी प्रयासों के लिए शुभ कामनाएं देते हुए अल्लाह से दुआ करते हैं कि उन्हें दोनों लोकों की सफलता प्राप्त हो, उनको शोध कार्य में सफलता मिले, वे हिंदी साहित्य क्षेत्र में उत्कृष्ट स्थान प्राप्त करें, और अपनी भाषा कौशल के माध्यम से वह हमारे समुदाय के लिए एक प्रमुख योगदानकर्ता बनें।  आमीन।

यह निबंध 1442 हिजरी/ 2021 के रमज़ान के दौरान मेहदाविया टाइम्स वेलफेयर ट्रस्ट द्वारा महामारी लॉक-डाउन के अवसर पर आयोजित दूसरे अंतर्राष्ट्रीय निबंध लेखन प्रतियोगिता का एक हिस्सा है। सुश्री शाफिया फरहिन ने इस प्रतियोगिता की वरिष्ठ उर्दू और हिंदी श्रेणी में विशेष पुरस्कार हासिल किया।

प्रतियोगिता के परिणाम यहां देखे जा सकते हैं - ->>> https://mehdaviatimes.blogspot.com/2021/05/announcement-of-results-of-second.html

Note: We will be publishing daily one selected essay in this Ramazan for you to read. We take this opportunity to thank and congratulate all the participants, winners and evaluators and those who were directly or indirectly involved to make this initiative a grand success. Fresh Write-ups/Articles/Essays are always solicited you may send them to MehdaviaTimes@gmail.com . 

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6 comments:

  1. Masha Allah,Daure halaat ko Deen ki roushni me bakhoobi pesh Kiya hai.. Ispar ghour o fikr Karne ki zaroorat hai.. aur Seekhna hai.. keep going

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  2. Very informative. Views are clearly expressed.

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  3. बहुत खूब.... बहुत अच्छी जानकारी।

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